राष्ट्रीय बालिका दिवस अभी बाकी है लम्बी लड़ाई देश में:प्रभा मोंगिया
नई दिल्ली (ख. स.) 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की शुरुआत 2009 से की गई। सरकार ने इसके लिए 24 जनवरी का दिन चुना क्योंकि यही वह दिन था जब 1966 में इंदिरा गांधी ने भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी। इस अवसर पर सरकार की ओर से कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। समाज में बालिकाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने के लिए अनेके आयोजन होते हैं।
हमारे देश में कन्या भ्रूण हत्या की वजह से लड़कियों के अनुपात में काफी कमी आयी है। पूरे देश में लिंगानुपात 940:1000 है। एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बिताना पड़ता है। इसी तरह,22 प्रतिशत औरतें ऐसी हैं, जो 18 साल के पहले मां बनी हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73 प्रतिशत बच्चे पैदा हुए हैं। इन बच्चों में 67 प्रतिशत कुपोषण के शिकार हैं। हम अनेक अवसरों पर कन्या का पूजन करते हैं लेकिन जब खुद के घर बालिका जन्म लेती है तो मातम का माहौल बना लेते हैं। यह हालात भारत के हर हिस्से में है। हरियाणा और राजस्थान के हालात तो इतने खराब हैं कि यहां बच्चियों को अभिशाप तक माना जाता है। कन्याओं को अभिशाप मानने वाले यह भूल जाते हैं कि वह उस देश के वासी हैं जहां देवी दुर्गा को कन्या रूप में पूजने की प्रथा है। जो लोग कन्याओं को बोझ मानते हैं उन्हें ही सही मार्ग बताने और कन्या-शक्ति को जनता के सामने लाने के लिए राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। कन्या भ्रूण हत्या एक जटिल मसला है। असल में इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी स्त्रियों की जागरूकता ही है, क्योंकि इस संदर्भ में निर्णय तो स्त्री को ही लेना होता है। दूसरी परेशानी कानून-व्यवस्था के स्तर पर है। भारत में इस समस्या से निबटना बहुत मुश्किल है, पर अगर स्त्रियां तय कर लें तो नामुमति कन नहीं है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और अत्यधिक चिंता का विषय है कि देश में वर्ष 1961 से ही बाल लिंगानुपात तेजी से गिरता रहा है। हम वर्ष 2019 में है और 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक को पूरा करने जा रहे है, लेकिन हम विचारधारा को बदलने में सफल नहीं हुए है। भारतीय समाज में सभी वर्गों के लोग बेटा होने की इच्छा रखते हैं और नहीं चाहते कि उन्हें बेटी होलड़कियों द्वारा अनेक क्षेत्रों में ऊंची उपलब्धियां हासिल करने के बावजूद भारत में जन्म लेने वाली अधिकतर लड़कियों के लिए यह कठोर वास्तविकता है कि लड़कियां शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों और बाल विवाह से सुरक्षा के अधिकार से वंचित हैं। आंकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को व 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर दिन औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बिताना पड़ता है। इसी तरह, सरक, गरी आंकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को व 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वे स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं। आज की बालिका जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रही है चाहे वो क्षेत्र खेल हो या राजनीति, घर हो या उद्योग। एशियन खेलों के गोल्ड मैडल जीतना हो या राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होकर देश सेवा करने का काम हो। लेकिन इसके उपरान्त आज भी वह अनेक कुरीतियों की शिकार हैं। ये कुरीतियों उसके आगे लिंगानुपात बढ़ने में बाधाएं उत्पन्न करती है। पढ़े-लिखे लोग और जागरूक समाज भी इस समस्या से अछूता नहीं है। आज हजारों लड़कियों को विचारधारा जन्म लेने से पहले ही कोख में मार दिया जाता है या जन्म लेते ही लावारिस छोड़ दिया जाता है। आज भी समाज में कई घर ऐसे हैं, जहां बेटियों को बेटों की तरह अच्छा खाना और अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही है। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5 प्रतिशत औरतें ऐसी हैं, जिनकी शादियां 18 शिक्षासाल के पहले हुईं हैं।
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