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रहते हैं कि अच्छे अच्छे कीमती कपड़े पहनने से हम बड़े ही सुंदर और शोभायमान लगेंगे । दूसरे हमारी वेशभूषा देखकर प्रभावित होंगे और बड़ा आदमी समझेंगे। अपने प्रति लोगों का यह विस्मय और आकर्षण आनंददायक होना ठीक है । ऐसा होता भी है। इसी तरह के लोग दूसरों की दर्शनीय वेश भूषा देखकर आकर्षित, प्रभावित तथा लालायित होते हैं लकिन इसमें वास्तविक आनंद की बस बात हुई थजसके लिये किसी का कौतुहल, विस्मय अथवा आनंद का कारण बन सकता है वह उच्च मनोभूमि वाला नहीं माना जा सकता । कौतूहल तो अज्ञान का बहुत बार तो लोग आनंद की भ्रांत धारणा के कारण कुत्सित मार्गों तक पर चले। जाते है । उनके पास इस साज समान के लिए अथवा उसे बनाये रखने के लिए पैसे की कमी हो जाती है तो वे शोषण बईमानी, भ्रष्टचार की ओर बढ़ जाते। है। ऐसे उपायों से आनंद की आशा करना उतना ही उपहासास्पद है जितना असंयमी के स्वस्थ रहने की आशा । मकान और उपहार रहायश इसकी सुविधा के समान्य से उपकरण है, जिनकी सहायता से प्राकृति परिवर्तन से अपने को बचाया और सुरक्षा पूर्वक रहा जा सकता है । यदि बड़े मकानो और अनावश्यक भंडारों में आनंद हो तो संसार में ऐसे हजारों लाखों व्यक्ति हैं जो भवन और भंडारों के नाम पर धनकुल कहे जाते हैं । किन्तु क्या वे सुखी हैं ? यदि उनका वह अनावश्यक सरजाम आनंद का उत्पादन कर सकता तो उनके पास शायद आनंद का इतना स्टाक हो जाता कि यदि वे चाहते तो उसका व्यवसाय कर सकते थे । साज सरजाम मे आनंद की कल्पना करना और उसके संचय के लिए व्यर्थ जान मारना बुद्धिमानी नहीं है । सामान्य श्रेणी के लोग सोचते हैं कि खूब अच्छा, स्वादिष्ट और सरल भोजन मिलता रहे । कितना आनंद रहे । आनंद का निवास खुब खाने और मौज उड़ाने में है, अपनी इसी मान्यता के कारण वे अच्छे से अच्छे भोजन और विविध प्रकार के व्यंजनों का संग्रह करते हैं । बार बार रसों का स्वाद लेते और कोशिश करते हैं कि उन्हें संतोष और परितृपित का आनंद मिले किंतु खेद है कि उन्हें अपने इस प्रयास में निराश ही होना पड़ता है । एक दो बार तो रस और व्यंजन कुछ अच्छे भी लगते हैं उसी लोभ में पुनः आवृति किए जाने से उसका स्वाद जवाब दे जाता है, रस फीका पड़ जाता है ।

आनंद अतंरात्मा में है।


(विजय वडेरा, समाज सेवक)


आत्मा का आदि आकांक्षा का नाम आनंद है । मनष्य को लेकर कीट पतंग तक जितने प्राणी हैं सभी आनंद की इच्छा करते हैं। प्राणियों का जीवन है आनंद और उसकी आशा अभिलाशा पर टिका हुआ है। मनुष्य स्वयं आने स्वरूप है । संसार के माया जाल में उसका यह स्वरूप खो गया है । व उसको ही खोजने और पाने का प्रयत्न कर रहा है उसवका समय जीवन में आनंद पाने का ही एक उपक्रम है मनुष्य यदि सुख भागों में व्यस्त होता है तो आनंद के जिए और यदि सहिष्णु बनकर कष्ट उठाता है तो आनंद की आशा से । आशा वांछनीय भी है और मानव जीवन का ध्येय भी । आनंद की दो प्रकार श्रेणियां मानी गई हैं एक उत्कष्ट और दूसरी निकृष्ट । जिनको सांसारिक अथवा विषयिक तथा आध्यात्मिक अथवा आत्मिक भी कहा जा सकता है आनंद और सुख शांति की अभिलाषा तो सभी करते है ।। किंतु वह वांछनीय आनंद कौन सा है, किस श्रेणी और स्तर का है, यह प्रायः कम लोग ही समझ पाते हैं । मनुष्य का वांछनीय आनंद वस्तुतः आध्यात्मिक आनंद ही है जबकि लोग उसे भूलकर सांसारिक आनंद को खोजने पाने में लग जाते हैं । सांसारिक अथवा 'दिषविक आनंद मृगतृष्णा के समान मिथ्या होता है । यह सत्य तथा वास्तविक होता है इसे पाने पर आनंद की इच्छा पूर्ण रूप से परितृप्त होंकर तिरोधान ही होती है । मनुष्य को सच्चे संतोष और सपूर्ण तृप्ति के लिए आध्यात्मिक आनंद की ही वांछा करनी चाहिए और उसी को संग्रह करने का प्रयत्न करना चाहिए । विचार करने की बात है कि यदि भोज्य पदार्थों मे वास्तविक आनंद होता तो तीसरी चाथी आवृति में ही वह रस अपनी विशेषता न खो देते मोजन तो जीवन रक्षा की एक सामान्य आवश्यकता है जो किन्ही भी उचित पदार्थों से वास्तविक आनंद की आशा करना दुराशा के सिवाये और कुछ नहीं है । आवश्यकता की पूर्ति हो जाने और क्षुधा का कष्ट मिट जाने से जो सरलता प्राप्त होती है वहीं उसकी विशेषता है, बस इसके आगे उसमें आनंद नाम की कोई वस्तु नहीं है भोजन की इस विशेषता को वास्तविक आनंद मान लेना और उसमें चिपटे रहना किसी प्रकार भी बुद्धिमानी नहीं है । इसको निम्रस्तरीय वति के परिचय के सिवाय और कछ नहीं कहा जा सकता ।। भोजन की भांति लोग वस्तु में भी आनंद की खोज करते हैं तरह तरह पट परिधान पहनकर जिस प्रदर्शन जन्य संतोष को लोग पाते हैं उसे ही आनंद मान बैठते हैं । लोग यह सोचकर वस्त्रों पर एक बड़ी धनराशि खर्च करते। रहते हैं कि अच्छे अच्छे कीमती कपड़े पहनने से हम बड़े ही सुंदर और शोभायमान लगेंगे । दूसरे हमारी वेशभूषा देखकर प्रभावित होंगे और बड़ा आदमी समझेंगे। अपने प्रति लोगों का यह विस्मय और आकर्षण आनंददायक होना ठीक है । ऐसा होता भी है। इसी तरह के लोग दूसरों की दर्शनीय वेश भूषा देखकर आकर्षित, प्रभावित तथा लालायित होते हैं लकिन इसमें वास्तविक आनंद की बस बात हुई थजसके लिये किसी का कौतुहल, विस्मय अथवा आनंद का कारण बन सकता है वह उच्च मनोभूमि वाला नहीं माना जा सकता । कौतूहल तो अज्ञान का बहुत बार तो लोग आनंद की भ्रांत धारणा के कारण कुत्सित मार्गों तक पर चले। जाते है । उनके पास इस साज समान के लिए अथवा उसे बनाये रखने के लिए पैसे की कमी हो जाती है तो वे शोषण बईमानी, भ्रष्टचार की ओर बढ़ जाते। है। ऐसे उपायों से आनंद की आशा करना उतना ही उपहासास्पद है जितना असंयमी के स्वस्थ रहने की आशा । मकान और उपहार रहायश इसकी सुविधा के समान्य से उपकरण है, जिनकी सहायता से प्राकृति परिवर्तन से अपने को बचाया और सुरक्षा पूर्वक रहा जा सकता है । यदि बड़े मकानो और अनावश्यक भंडारों में आनंद हो तो संसार में ऐसे हजारों लाखों व्यक्ति हैं जो भवन और भंडारों के नाम पर धनकुल कहे जाते हैं । किन्तु क्या वे सुखी हैं ? यदि उनका वह अनावश्यक सरजाम आनंद का उत्पादन कर सकता तो उनके पास शायद आनंद का इतना स्टाक हो जाता कि यदि वे चाहते तो उसका व्यवसाय कर सकते थे । साज सरजाम मे आनंद की कल्पना करना और उसके संचय के लिए व्यर्थ जान मारना बुद्धिमानी नहीं है । सामान्य श्रेणी के लोग सोचते हैं कि खूब अच्छा, स्वादिष्ट और सरल भोजन मिलता रहे । कितना आनंद रहे । आनंद का निवास खुब खाने और मौज उड़ाने में है, अपनी इसी मान्यता के कारण वे अच्छे से अच्छे भोजन और विविध प्रकार के व्यंजनों का संग्रह करते हैं । बार बार रसों का स्वाद लेते और कोशिश करते हैं कि उन्हें संतोष और परितृपित का आनंद मिले किंतु खेद है कि उन्हें अपने इस प्रयास में निराश ही होना पड़ता है । एक दो बार तो रस और व्यंजन कुछ अच्छे भी लगते हैं उसी लोभ में पुनः आवृति किए जाने से उसका स्वाद जवाब दे जाता है, रस फीका पड़ जाता है ।


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